शिव आमंत्रण, आबू रोड। अब दिनचर्या में इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यदि अधिक न भी हो सके तो सायंकाल तक कम-से-कम सात बार विशेष रूप से ईश्वरीय स्मृति में बैठने का समय मिले, ताकि प्रतिदिन ईश्वरीय स्मृति में आठ घंटे स्थित होने का ईश्वरीय निर्देश यदि हम पूरा न भी कर सकें तो कम से कम 3-4 घंटे हर हालत में इसका अभ्यास करें। देखा गया है कि जो मनुष्य लौकिक अथवा स्थूल कार्यों में दिनभर लगातार लगा रहता है और इसमें अपनी बुद्धि, कर्मेन्द्रियों को इस प्रकृति के जगत से हटाकर प्रभु की ओर लगाने का अभ्यास नहीं करता, उसका पुरुषार्थ तीव्र नहीं हो पाता। अत: चाहे कैसा भी व्यस्त जीवन क्यों न हो दोनों बार भोजन करने से कुछ पहले एवं भोजन के समय, प्रात: उठते ही और रात्रि को भी सोने से पहले, संध्या और रात्रि को क्लास में अथवा घर पर, एक बार दोपहर में कम-से-कम सात बार और 15-15 मिनट तो ईश्वरीय स्मृति का अभ्यास करना ही चाहिए। जब भोजन हमारे सामने परोसा जाए तो उससे पहले ही स्व-स्थिति एवं प्रभु-स्मृति में बैठने से अवस्था अव्यक्त बनी रहती है। देखा गया है कि मनुष्य व्यस्तता के अनेक बहाने बनाकर योगाभ्यास के इन
स्वर्णिम अवसरों को खो देता है। इससे न केवल यह हानि होती है कि उसके योग की सूक्ष्मता आगे-आगे नहीं बढ़ती बल्कि योग का अभ्यास टूट जाने से और छूट जाने से उसकी अवस्था व्यक्त होने लगती है और वह व्यवहारी और संसारी बनने लगता है। अतः अन्य कार्यों से भी इसे आवश्यक समझकर जन्म-जन्मान्तर की कमाई का साधन मानकर, ईश्वर द्वारा दिया निर्देश जानकर, चाहे कैसे भी बन पाए समय निकालना ही चाहिए। मनुष्य को ऐसे ही समझ लेना चाहिये कि प्रभु का तार आ गया है, ट्रंक कॉल आ गया है अथवा मेरे लिए कोई आवश्यक संदेश आ गया है अथवा आना है। मैं चलते-फिरते, उठते-बैठते योग लगा लूंगा ऐसा सोचकर विशेष तौर पर प्रभु-मिलन के लिए बैठने और योग अभ्यास करने को छोड़ देना हानिकारक है। कार्य करते हुए भी ईश्वरीय स्मृति में रहने का पुरुषार्थ तो करना ही चाहिए परन्तु इसके अतिरिक्त विशेष तौर पर दिनभर में कई बार सहज समाधि काअभ्यास अथवा अनुभव करने से स्थिति अच्छी बनी रहती है।
सावधानी देने वालोंसे संपर्क बनाए रखें-
अवस्था में कुछ कमज़ोरियां आ जाने का एक कारण यह भी होता है कि मनुष्य को सावधानी देने वाले, उसकी त्रुटियां उसे बताने वाले और उसकी स्थिति को फिर से ठीक रखने, निर्देश देने और अंकुश में रखने वाले से उसका सम्पर्क टूट जाता है। जब तक मनुष्य की अवस्था सम्पूर्ण और निर्दोष न हो जाए तब तक उसे अवश्य ही किसी ऐसे निर्देशक की आवश्यकता रहती ही है जो उसकी उन्नति के लिए, हित की बात बताए। परन्तु देखा गया है कि कुछ लोग थोड़ा-सा भी ईश्वरीय ज्ञान सुनने के पश्चात और सेवा में जुटने के बाद ऐसा कोई संग नहीं बनाए रखते। वे किसी को भी अपनी अवस्था का सारा हिसाब खोलकर नहीं बताते जिससे कि आगे के लिए उन्हें दिशा-निर्देश मिले। इसका परिणाम यह होता है कि वे स्वयं या तो अपनी कमियों को देख नहीं पाते या उन्हें दूर नहीं कर पाते और उसके परिणाम स्वरूप उन्हें यह देखकर निराशा होती है कि उनकी कोई प्रगति नहीं हो रही। या वे स्वयं में ही मिथ्या तुष्टि का अनुभव करते हुए जहां खड़े थे, वहीं खड़े रहते हैं। अतः उत्तरोत्तर उन्नति चाहने वाले मनुष्य को अपने पुरुषार्थ में तीव्रता लाने के लिए अपनी अवस्था का ब्यौरा देना जरूरी है।
नाम, मान, शान अथवा प्राप्ति की आकांक्षा- कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो ईश्वरीय ज्ञान और योग की शिक्षा प्राप्त करने के बाद ईश्वरीय सेवा तो करते हैं परन्तु साथ-साथ अपने कार्य के फलस्वरूप नाम अथवा यश पाने की आकांक्षा करते हैं। जो सेवा वे करते हैं उसमें वे नम्र भाव से, स्वयं को एक सेवाधारी अथवा निमित्त साधन मानने की बजाय, एक कुशल और योग्य कार्यकर्त्ता मानने लगते हैं और प्रतिष्ठा,
सुविधा और सत्कार पाने की आकांक्षा मन में रख लेते हैं। यदि उनकी यह इच्छा पूरी होती जाए तो वे इसमें और भी अधिकाधिक फंसते जाते हैं अर्थात् और अधिक यश प्राप्त करने की लालसा से उनके पास योगाभ्यास व पुरुषार्थ के लिए न तो एकान्त और शान्त में बैठने का समय बच पाता है और न ही आत्म-चिन्तन और आत्म-निरीक्षण की टेव उन्हें रहती है। यदि उन्हें मान और मर्तबा न मिले तो वे रुष्ट और खिन्न-चित्त हो जाते हैं। दिनप्रतिदिन इस भाव से ईश्वरीय सेवा को छोड़ते जाते हैं कि हमारे किए हुए कार्य का कोई मूल्य ही नहीं अथवा उसकी ओर कोई ध्यान ही नहीं देता। इस प्रकार उत्तरोत्तर अपनी बुद्धि को सेवा के कार्य से खाली करके, वे उल्टे संकल्पों और विकल्पों में लगाकर अपनी अवस्था कोगिराने लगते हैं।