शिव आमंत्रण, आबू रोड/राजस्थान। जो संगमयुग के मेले में रहते हैं वह सर्व झमेलों से मुक्त हो जाते हैं। बाबा कहते हैं सदा वाह-वाह कहो और कहते हैं व्हाई-व्हाई (क्यों, क्यों)। अगर कोई भी परिस्थिति में व्हाई शब्द आ जाता है तो उमंग-उत्साह का प्रेशर कम हो जाता है। बापदादा ने अगले साल भी विशेष डबल फारेनर्स को कहा था कि व्हाई शब्द को ब्राह्मण डिक्शनरी में चेंज करो। जब व्हाई शब्द आये तो फ्लाय शब्द याद रखो तो व्हाई खत्म हो जायेगा। कोई भी परिस्थिति छोटी भी जब बड़ी लगती है तो व्हाई शब्द आता है – ये क्यों, ये क्या… और फ्लाय कर लो तो परिस्थिति क्या होगी? छोटा-सा खिलौना। अगर जीना है तो मौज़ से जीयें। सोच-सोचकर जीना वो जीना नहीं है। आप लोग औरों को कहते हो कि राजयोग जीने की कला है। तो आप लोग राजयोगी जीवन वाले हो ना! कि कहने वाले हो? जब राजयोग जीने की कला है तो राजयोगियों की कला क्या है? यही है ना? तो उत्सव मनाना अर्थात् मौज में रहना। मन भी मौज में, तन भी मौज में, सम्बन्ध-सम्पर्क भी मौज में। कोई भी बड़े ते बड़ी नाज़ुक परिस्थिति वास्तव में आगे के लिये बहुत बड़ा पाठ पढ़ाती है, परिस्थिति नहीं है लेकिन वह आपकी टीचर है। उस नज़र से देखो कि इस परिस्थिति ने क्या पाठ पढ़ाया? इसको कहा जाता है निगेटिव को पॉजिटिव में परिवर्तन करना। सिर्फ परिस्थिति को देखते हो तो घबरा जाते हो। और परिस्थिति माया द्वारा सदा नए-नए रूप से आएगी। वैसे ही नहीं आएगी, जिस रूप में आ चुकी है, उस रूप में नहीं आयेगी। नये रूप में आयेगी। जैसा समय वैसा अपने को एडजेस्ट कर सको। ये अभ्यास आगे चलकर आपको बहुत काम में आएगा क्योंकि हालतें सदा एक जैसी नहीं रहनी है। और फाइनल पेपर आपका नाज़ुक समय पर होना है। आराम के समय पर नहीं होना है। नाजुक समय पर होना है। तो जितना अभी से अपने को एडजेस्ट करने की शक्ति होगी तो नाजुक समय पर पास विद् ऑनर हो सकेंगे। पेपर बहुत टाइम का नहीं है, पेपर तो बहुत थोड़े समय का है लेकिन चारों ओर की नाजुक परिस्थितियां, उनके बीच में पेपर देना है इसलिए अपने को नेचर में भी शक्तिशाली बनाओ। संगमयुग पर सागर गंगा से अलग नहीं, गंगा सागर से अलग नहीं। इसी समय नदी और सागर के समाने का मेला होता है। जो इस मेले में रहते हैं वह सर्व झमेलों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन इस मेले का अनुभव वही कर सकते हैं जो समान बनते हैं। जो सदा स्नेह में समाये हुए हैं वह सम्पूर्णता और सम्पन्नता की प्रालब्ध का अनुभव करते हैं। उन्हें कोई भी अल्पकाल के प्रालब्ध की इच्छा नहीं रहती।
इच्छा मात्रम अविद्या होे जीवन…
आज संसार में ज्यादातर समस्याओं का मुख्य कारण है मनुष्य की बढ़ती इच्छाएं। इच्छाओं का कभी अंत नहीं होत है। एक पूरी होती है तो दूसरी उत्पन्न हो जाती है। बाबा ने हमें सुंदर शिक्षा दी है कि बच्चे इच्छा मात्रम अविद्या बनो। कहीं भी मोह में, कामना में बुद्धि न रहें। जितना निर्माण, निर्विकारी, निराकारी स्थिति की ओर बढ़ते जाएंगे, अपनी इच्छाओं को सीमित करते जाएंगे तो जीवन में अपने आप आनंद बढ़ता जाएगा। यदि जीवन में परम आनंद चाहते हैं तो किसी भी वस्तु, पदार्थ, मान-सम्मान की इच्छाओं से परे हो जाओ। जीवन में अपने आप आनंद आ जाएगा। हम राजयोगी हैं, जीवन भी श्रेष्ठ और महान बन गया है लेकिन मन के किसी कोने में कोई न कोई हद की इच्छा छिपी हुई है। इच्छा मनुष्य को कभी अच्छा नहीं बनने देती है। सर्व इच्छाओं से परे, परमात्मा को मन-बुद्धि अर्पित कर देंगे तो संतुष्टता, संपन्नता का भाव अपने आप आ जाएगा। जीवन में परम सुख, परम संतोष समा जाएगा। सर्व के प्रिय, प्रभु प्रिय बन जाएंगे। पुरुषार्थ बढ़ जाएगा और आपका जीवन उदाहरणमूर्त बन जाएगा।