- आलस्य और सुस्ती दोनों से बचें क्योंकि यह दोनों हमारे कई लाभों को रोक देंगी…
- अलबेलापन वह मनोदशा है जिसमें मनुष्य किसी भी कार्य को महत्व नहीं देता, समय को महत्व नहीं देता, कार्य गंभीरता पूर्वक नहीं करता, उत्तर दायित्व से भागना, आज की बात कल पर टाल देना, कल फिर कल पर टाल कर, सुबह-शाम करते करते यूं ही जिंदगी तमाम कर देते हैं…
आलस्य और अलबेलापन भी एक विकार है और माया का एक वार है जो हमें परमात्मा से दूर कर देते हैं। जो कुछ हमें बाबा से दूर कर दे वह माया है। माया कहीं से भी वार कर सकती है और किसी भी रूप से इसलिए सावधान! आलस्य अर्थात मेहनत से जी चुराना, कर्म-पुरुषार्थ के प्रति रुख ढीलाढाला, सुस्तीपना। जब मनुष्य में आनंद की कमी होती है। तब आलस्य विकार हावी हो जाता है। ऐसे मनुष्य जो आलस्य की जकडऩ में हैं, के मनसूबे कितने भी बड़े हो वे अपन मंजिल पर नहीं पहुंच पाते हैं। परन्तु मनुष्य को याद रखना चाहिये कि शेर जब शिकार करता है तभी उसका पेट भर पाता है। यद्यपि वह जंगल का राजा है फिर भी कोई शिकार स्वयं आकर उसके मुख में प्रवेश नहीं करता है। सुस्ती व आलस्य एक ऐसी चीज है, जो इंसान को किसी भी क्षेत्र में आगे बढऩे नहीं देती है। जो व्यक्ति आलसी होता है वह लगभग हर कार्य करने में यथासंभव टाल मटोल की कोशिश करता है और उसका परिणाम यह होता है कि जीवन के किसी भी मैदान में सफल नहीं हो पाता है। आलस्य एक ऐसी जंजीर है जिसकी एक कड़ी दूसरी कड़ी से मिली होती है और वह इंसान के हाथ-पैर बांध देती है। जब आलसी इंसान एक कार्य अंजाम देने में सुस्ती से काम लेता है तो समय नहीं गुजरता कि वह दूसरे कार्य को भी अंजाम देने में सुस्ती से काम लेता है।
जिस तरह मरे हुए टिंडे को चींटियां जहां चाहे ले जाती हैं। वैसे अलबेलेपन और आलस्य की गफलत में पड़े इंसान को छोटी छोटी बातें संकल्पों के जिस राह में बहाना चाहे बहा ले जाती हैं। अलबेलेपन की बात की जाए तो ये भी कुछ कम नहीं। अपने 5 विकार रूपी भाइयों से क्योंकि ये हमें कभी आगे बढऩे नहीं देता है। क्योंकि जब आत्मा पुरुषार्थ के लिए स्वतंत्र व सर्व विघ्नों से मुक्त होती है तो ये माया रूपी शक्ति कार्य करती है और उस अवस्था में हमें ऐसा लगता है कि हम तो स्वतंत्र हैं और ज्ञानी भी हैं इसलिए पुरुषार्थ कर लेंगे, कर तो रहे हैं और हो जाएगा। अभी समय तो है आदि-आदि। यह है अलबेलापन। कल का कोई भरोसा नहीं। जो करना है अभी करो। स्वयं भगवान कह रहे हैं बच्चे अंतिम समय है। अभी नहीं तो कभी नहीं कल्प-कल्प का घाटा पड़ जाएगा। फिर क्या पछतावा। आलस्य और अलबेलापन मानव के महान शत्रु हैं जो हमें आगे बढऩे नहीं देते हैं, इसलिए हमें इन विकारों को दृढ़ता की शक्ति से, मेहनत से जीतना ही होगा, लेकिन हमें इसका रीजन भी पता होना चाहिए। क्योंकि हमें आलस्य आता है तब ही हम इसका निदान कर पाएंगे। अव्यक्त बापदादा ने कहा है कि सभी पुरुषार्थ भी करते हो, उमंग भी है, लक्ष्य भी है फिर भी ऐसा क्यों नहीं होता। इसका मुख्य कारण यह देखा जाता है- कोई न कोई में अलबेलापन आ गया है, जिसको सुस्ती कहते हैं। सुस्ती का मीठा रूप है आलस्य। आलस्य भी कई प्रकार का होता है। मैजारिटी में किस-किस रूप में आलस्य और अलबेलापन आ गया है। इच्छा भी है, पुरुषार्थ भी है लेकिन अलबेलापन होने के कारण जिस तरह से पुरुषार्थ करना चाहिए वह नहीं कर पाते हैं। पुरुषार्थ में तड़प होनी चाहिए। जैसे बाधेलियां तड़पती हैं तो पुरुषार्थ भी तीव्र करती हैं और जो बाधेलियां नहीं, वह तृप्त होती हैं तो अलबेले हो जाते हैं। हमेशा समझो कि – हम नंबरवन पुरुषार्थी बन रहे हैं, बन नहीं गए हैं। सवेरे उठते ही पुरुषार्थ में शक्ति भरने की कोई न कोई स्वमान के पॉइंट सामने रखो। अलबेलापन तब आता जब सिर्फ डायरेक्शन समझा जाता लेकिन नियम नहीं बनाते।जैसे दफ्तर में जाना जीवन का नियम है तो जाते हो ना।ऐसे हर चीज को नियम देना है। अमृतवेले उठ कर नियम को दोहराओ। सदा स्व चिंतन करो और शुभचिंतक बनो। स्वचिंतन की तरफ अटेंशन कम है। अमृतवेले से स्वचिंतन शुरू करो और बार-बार स्व चिंतन के साथ साथ स्व की चेकिंग करो।