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आध्यात्मिक और राजसिक जीवनशैल - Shiv Amantran | Brahma Kumaris
आध्यात्मिक और राजसिक जीवनशैल

आध्यात्मिक और राजसिक जीवनशैल

सच क्या है

शिव आमंत्रण। आध्यात्म अर्थात् आत्मा का अध्ययन। परमात्म शक्ति से आत्मिक शक्तियों को जागृत करना। आध्यात्म की धारा नित, निरंतर, नूतन, नए प्रयोगों और अनुभवों पर आधारित होती है। आत्मिक चेतना का अभ्यास जितना गहराईपूर्ण और अनुभवयुक्त अवस्था की ओर बढ़ता है तो अनुभवों की माला उनती ही महीन और मजबूत बनती जाती है। आध्यात्म का आधार है संयम, नियम, शुद्ध आहार-विहार, प्रकृति का सान्निध्य, एकांत, सत्संग, अध्ययन, मौन, त्याग-तप और परमात्म योग। जब इन पहलुओं में से किसी भी पहलू की जीवन में रिक्तता होती है तो कहीं न कहीं आध्यात्मिक जीवनशैली प्रभावित होती है। या फिर उत्तरोत्तर प्रगति की बजाय अवनति प्रतिफल के रूप में मन को आत्मग्लानि से भर देती है। आध्यात्मिक जीवनशैली अर्थात् आज से आना वाला कल और बेहतर, श्रेष्ठ और सफल। यदि वर्षों की आत्मिक साधना के बाद भी ठहराव की स्थिति है तो जीवन की समीक्षा करने की जरूरत है। गहराई में जाकर आत्म चिंतन करना होगा कि वह कौन से वह अवरोधक हैं जो उन्नति के मार्ग में खड़े हैं? समस्या की जड़ को समझकर पूरे मनोभाव, केंद्रीय भाव के साथ उसमें जुटना होगा। किसी समस्या के समुचित पहलुओं को जाने-समझे बिना उसका उचित निराकरण संभव नहीं है। त्याग के पतझड़ में खिलते हैं आध्यात्म के पुष्प बिना त्याग-तपस्या के जीवन में आध्यात्म के पुष्प पुष्पित नहीं हो सकते हैं। सूरज की ‘तपन’ और ‘पतझड़’ के बाद जब पहली बार बूंदें छमझम करतीं बरसती हैं तो मिट्टी की सौंधी सुगंध मन को भावविभोर कर देती है। जमीन की प्यास बुझती है तो वह सारी धरा को ही हराभरा कर देती है। इस आनंद की अनुभूति वही कर सकता है जिसने ‘तपन’ और ‘पतझड़’ को जीया हो। इसी तरह जब आत्मा, परमात्म अग्नि से खुद को तपाती है, दिव्य ऊर्जा को समाती है और शक्ति से भरपूर करती है तो उस ‘तप’ की ‘तपन’ और त्याग आनंद के रूप में परिवर्तित होकर जीवन को गुले-गुलजार कर देती है। सर्व प्राप्तियों और सर्व सुखों से आत्मा खुद को सुखी-संतुष्ट महसूसकरती है। राजसिक जीवनशैली और अवनति मार्गपरमात्म चाह में प्यासा पथिक जब उसे पाकर मिलन मना लेता है तो जीवन में जो पाना था सो पा लिया… की अवस्था की ओर स्वत: ही बढ़ जाता है। परमात्मा मिलन की चाह पूरी होने की अवस्था विकास के क्रम में पुरुषार्थ को ढीला कर देती है। इस यात्रा में उसे पता ही नहीं चलता है कि जिस कठिन, पथरीले, दुर्गम और त्याग के मार्ग पर वह चल रहा है उसमें कब ‘राजसिकता’ शामिल हो गई है। साधन और सुविधाओं की शैया पर वह कब सो गया, एहसास ही नहीं हो पाता है। जबकि परमात्म मिलन के बाद की स्थिति पहले से ज्यादा सजग और सचेत रहने की होती है। पल-पल जीवन के प्रत्येक पहलू की समीक्षा करते हुए फूंक-फूंककर कदम रखना होता है। नित ज्ञानध्यान-योग-साधना की अवस्था में मग्न रहते पिछले अनुभवों से सीख लेते हुए आगे बढऩा होता है। जीवन में राजसिक जीवनशैली जितनी कम होगी, उतनी ही आत्मा में तपस्या की अग्नि तीव्र वेग में जलेगी। राजसिकता के व्यापक स्वरूप में स्वाभाविक रूप से तामसिकता प्रवेश कर जाती है। तामसिकता और आध्यात्म एक-दूसरे के परस्पर विरोधी तत्व हैं। ऐसे में पथिक आध्यात्मिक अनुभूतियों के खजानों और गहराई से वंचित रह जाता है, उसके आत्मिक स्वरूप और अंतर्मन में एक खालीपन का एहसास कब अपनी जगह बना लेता है उसे वह समझ ही नहीं पाता है। अंतर्मन से जब हम भौतिक सुख-सुविधाओं को बिसार देते हैं और आत्मिक गगन में नित समाए रहते हैं तो यह त्याग, शक्ति का रूप ले लेता है। पल-पल, प्रतिपल अपने संकल्पों और जीवनशैली की समीक्षा करते हुए आगे बढऩा होगा। क्योंकि आध्यात्मिकता एक जीवनशैली ही नहीं पूरा जीवन है। यह जीवनभर चलने वाली निरंतर
और अनंत यात्रा है। इसे उमंग-उत्साह और आनंद के साथ पूरा करने में ही सफलता है।

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