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ज्ञान-पवित्रता का आधार स्तंभ थीं दादी गुलजार - Shiv Amantran | Brahma Kumaris
ज्ञान-पवित्रता का आधार स्तंभ थीं दादी गुलजार

ज्ञान-पवित्रता का आधार स्तंभ थीं दादी गुलजार

सच क्या है

परमात्मा तो जानी-जाननहार है। वह हम सबकी कुंडली जानते हैं कि मेरा कौन बच्चा सहयोगी, योगी और योग्य है। सृष्टि परिवर्तन के इस यज्ञ में जिस दिन 9 वर्ष की कन्या ने अपना पहला कदम बढ़ाया तो ब्रह्मा बाबा को यह आभास हो गया था कि यह बच्ची एक दिन परमात्म संदेशवाहक बनकर लाखों लोगों के जीवन को ज्ञान की गंगा में डुबकी लगवाने के निमित्त बनेगी। दिव्य बुद्धि के वरदान से सुशोभित दादी हृदयमोहिनी जी का व्यक्तित्व सागर की तरह गहरा और कृतित्व हिमालय की तरह विशाल था। वह ज्ञान की ऐसी शीतल धारा थीं, जिनके संपर्क में आकर हजारों लोगों के सोचने की दिशा बदल गई। भटके हुए को राह और डूबते हुए को किनारा मिल गया। उन्होंने अपने जीवन में त्याग-तपस्या से आध्यात्म की उस गहराई को पा लिया था जिसके समंदर में डूबने वाला गोताखोर ही अनुभूति कर सकता है। आध्यात्म की यात्रा में मौन-एकांत, आत्मा को अपने स्वरूप में स्थित होने, उसे महसूस करने और शक्तियों को जागृत कर उसे दिव्यता की ओर ले जाने के लिए पहली और अनिवार्य शर्त है। दादी मौन और एकांत की तो जैसे साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं। बचपन से ही धीर-गंभीर स्वभाव और मनन-चिंतन तो उनके जीवन का हिस्सा रहा।
दादीजी हमेशा कहतीं थीं एक शब्द से काम चल जाए तो दो क्यों बोलें। उनके मुख से उच्चारित एक-एक शब्द ऐसे लगता था जैसे आसमान से मोतियों की बारिश हो रही हो। उन्होंने जीवन पर्यंत इस साधना को जारी रखा। परमात्मा की शिक्षाओं को जीवन में अक्षरत: ऐसे एकाकार कर लिया था, जैसे पानी में शकर घुलकर अपनी मिठास से पानी का स्वाद बदल देती है। वह परमात्मा की शिक्षाओं को जीवन चरित्र में उतारकर एक-एक कर्म, दिव्यगुण और विशेषताओं का स्वरूप बन गईं। पवित्रता इतनी अखंड थी कि उनके संपर्क में आने वालों मानव मात्र को शक्तिशाली प्रकंपन महसूस होते थे। मुखमंडल ओज से ऐसा परिपूर्ण था जैसे सूर्य की तेजस्वी किरणें निकलकर चारों ओर फैल रही हों।
आप शक्ति स्वरूपा, दुर्गा हो…
दादी अपने प्रवचनों में बहनों से कहतीं थीं हमेशा बड़ा सोचो। आपमें वह शक्ति है जो चाहो कर सकती हो। जब मैं कर सकती हूं तो आप भी कर सकती हो। आप शक्तिस्वरूपा, दुर्गा और सरस्वती हो…अपने स्वरूप को इमर्ज कर कर्म करो। संसार आशा की निगाहों से तुम्हें देख रहा है। तुम्हें दु:खी, अशांत, दर्द में जी रहीं मनुष्य आत्माओं का कल्याण करना है। आध्यात्म पथ के राही साकार में दादी की एक झलक पाने के लिए ऐसे आतुर रहते थे, जैसे पपीहा पानी की एक बूंद के लिए प्यासा रहता है। पचास साल तक परमात्मा के संदेशवाहक के रूप में उन्होंने ज्ञानबल से लाखों लोगों के जीवन को ‘गुलजार’ कर जीने की नई राह दिखाई।

अब अव्यक्त वतन ‘गुलजार’…
दादीजी को अंतिम विदाई देने मुंबई से आई डॉक्टरों की टीम ने अपना अनुभव बताया कि हमारे जीवन में दादी के रूप में पहला मरीज देखा जिसने कभी नहीं बताया कि मुझे क्या तकलीफ, दर्द है। वह दर्द से परे थीं। उनके कमरे में जाने पर जो दिव्य अनुभूति होती थी उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है, वह सिर्फ महसूस की जा सकती थी। दादी की इतनी उच्च मानसिक अवस्था उनके जीवनभर के त्याग-तप और साधना का ही परिणाम थी। दादी व्यक्त से महाप्रयाण कर अब अव्यक्त वतन ‘गुलजार’ करने की सेवा कर रही हैं।

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