मनुष्य में जो चेतना है वो अनेक गुणों और शक्तियों से भरपूर है । विज्ञान ने भी अपनी खोज में यह पाया है कि यह सारा संसार ऊर्जा के सुक्ष्म कणों से मिलकर बना है । ये कण अविनाशी और अनंत है, जो केवल अपना स्वरूप बदल सकते हैं परंतु नष्ट नहीं होते हैं । निरंतर गतिमान होने के कारण ये कण निश्चित समय अंतराल के पश्चात ऊर्जा के ऊपरी स्तर से लेकर उर्जा के निम्न स्तर और फिर उर्जा के निम्न स्तर से, किसी घटनाक्रम से होते हुए पुनः ऊर्जा के ऊपरी स्तर तक पहुंचने के लिए सदैव चक्र में बंधे रहते हैं । इसी तरह, मनुष्य की आत्मशक्ति भी ऊंची अवस्था में होने पर देवतुल्य और निम्न अवस्था में होने पर दानव तुल्य है ।
ऊर्जा का ऊंचा स्तर मानसिक शक्ति को बढ़ाकर मनुष्य को गुणवान, चरित्रवान, शक्तिवान और रूपवान बना देता है । इस कारण आसपास की प्रकृति और प्राणी भी ऊर्जा की ऊंची अवस्था वाले बन जाते हैं । प्रकृति सुंदर एवं सुखदाई बन जाती है और समस्त संसार स्वर्ग कहलाता है । परंतु धीरे-धीरे बीतते समय के साथ-साथ मनुष्य की यही आत्मिक ऊर्जा भी धीरे-धीरे घटते क्रम की ओर अग्रसर होती रहती है जिससे उसका चरित्र, गुण, शक्ति और प्राकृतिक सौंदर्य भी घटने लगता है । उसके आत्मिक गुण जैसे कि प्रेम, शांति, पवित्रता, शक्ति, ज्ञान, सुख और आनंद आदि विकृत होकर नफरत अशांति, अपवित्रता शक्तिहीनता, अज्ञानता, दुख, विषाद, ईर्ष्या, द्वेष आदि में बदल जाते हैं जिससे प्रकृति भी दूषित हो जाती हैं ।
जड़ प्रकृति अपने अंदर के असंतुलन को एक सीमा तक सहन करते करते स्वत: ही स्वयं में विस्फोट कर, स्वयं को फिर से संतुलित कर लेती है, जैसे कि गुब्बारे के अंदर निरंतर हवा भरते रहने से गुब्बारा फट जाता है । पानी का प्राकृतिक स्वभाव शीतल और तरल रूप है, गर्म करते रहने से वह भी उबलकर, भाप बनकर उड़ जाता है और फिर बूंदों के रूप में अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाता है । उसी प्रकार मनुष्य आत्मा भी विकारों रूपी अग्नि से प्रभावित होकर काली और कमजोर हो जाती है जिसे अपना सच्चे स्वरूप में टिकने की आवश्यकता है ।
प्रकृति में विस्फोट की भांती हमें भी अपनी दूर्भावनाओं व कमजोरियों में विस्फोट करने की आवश्यकता है । इसका उपाय यही है कि हम अल्पकालिक देहाकर्षण, इंद्रियाकर्षण और संसाधनों के आकर्षण से मुक्त होकर स्वयं पर और तीनों लोकों में परम शक्तिशाली परमात्मा की ओर अपना ध्यान आकर्षित करें । अंतर्मुखता की गुफा में बैठ अपने शक्तिशाली सच्चे स्वरूप में दिख जाएं । यह विधि ही राजयोग है जो मनुष्य को स्वयं पर राज करना सिखाती है । जो स्वयं पर राज कर सकता है वही प्रकृति जीत, विकारजीत सो जगतजीत, देवतुल्य और पूजनीय बन सकता है ।