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सत्यता की राहों से न भटकनेे वाला ही महावीर - Shiv Amantran | Brahma Kumaris
सत्यता की राहों से न भटकनेे वाला ही महावीर

सत्यता की राहों से न भटकनेे वाला ही महावीर

बोध कथा शिक्षा


बहुत समय पहले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में बौद्ध भिक्षुओं केदो आश्रम थे। बड़ा आश्रम ल्हासा में था। उसकी एक छोटी गांव में थी। इसके लामा वृद्ध हो गए थे। उन्होंने सोचा कोई उत्तराधिकारी बनाया जाए। तो वो अपने एक शिष्य को उस बड़े आश्रम में भेजते हैं। इस पर कहीं दूर के आश्रम से वहां के गुरु उस शिष्य के साथ दस शिष्यों को भेजते हैं। परंतु शिष्य कहता है कि दस शिष्य नहीं, सिर्फ एक ही। परंतु वो कहते हैं चिंता न करो पहुंचेगा एक ही। तो दूसरे दिन वो दस शिष्य भिक्षु और यह भिक्षु निकल पड़ते हैं। यात्रा बहुत लंबी थी। चलते-२ एक शिष्य सोचता है किकैसा मेरा जीवन रहा? आश्रम में सुबह-सुबह उठकर ध्यान के लिए बैठो, प्रवचन सुनो, दिन भर सेवाएं फिर शाम को वापिस ध्यान में बैठो। शास्त्र पढ़ो और फिर वही-२ बातें। ऐसा मेरा कठोर जीवन है। जिस रास्ते से जाते हैं, उस रास्ते में अपना गांव देखकर उसे घर याद आ जाता है। वो साथियों से कहता है कि आगे चलो मैं थोड़ी देर में आता हंू। काफिला आगे बढ़ता है, थोड़े समय बाद दूसरा शिष्य भी सोचता है कि ये कैसा जीवन है? आश्रम में कितने सालों से सेवाएं, साधनाएं, तपस्या कर रहा हंू, परंतु कोई उन्नति का लक्षण दिखाई नहीं देता। तो वो भी कहता है कि थोड़ी दूर ही मेरे गांव में मेरी बूढ़ी मां बीमार है। मैं चाहता हंू कि कुछ दिन वहां बिताऊं फिर वो भी रूक जाता है। बाकी सभी आगे बढ़ते हैं। तीसरे शिष्य के मन में भी कुछ हल-चल होने लगती है। तभी राजा केतीन सिपाही वहां आकर कहते हैं कि राजपुरोहित की मृत्यु हो गई है। राजा की आज्ञा है कि जो भी भिक्षुक इच्छुक है वो राजपुरोहित बन सकता है। अचानक तीसरा शिष्य सोचता है कि कब तक यह कठोर जीवन जीएं, क्यों न राजपुरोहित बन जाऊं? कम से कम सुख-सुविधाआराम तो होगा।
यहां तो सब काम स्वयं करने पड़ते हैं। वह शिष्य भी सैनिकों केसाथ चला जाता है। काफिला आगे बढ़ता है। एक स्त्री कहती है मेरे पिता बहुत समय से घर नहीं पहुंचे हैं। मैं अकेली हूं। तुममें से कोई एक मेरी कुटिया में रूके तो बहुत अच्छा होगा। अब चौथा शिष्य भी सोचता है कि रोज देखो ब्रह्मचर्य-२ की दिन-रात शिक्षा दी जाती है। वो शिष्य भी वहीं ठहर जाता है। इस तरह पांचवा, छटा, सातवा और आठवा शिष्य रास्ते में कुछ न कुछ प्रलोभन में आकर रुक जाते हैं। कारवां आगे बढ़ता है और रास्ते में कुछ ग्रामीण मिलते हैं वो कहते हैं अरे तुम कहां जा रहे हो? इस आश्रम का लामा तो बड़ा ही दुष्ट है। उसके साथ जो भी शिष्य थे सब उसे छोडकऱ चले गए। ये बातें नौवां शिष्य सुनते ही वहीं रह जाता है। दसवां शिष्य बहुुत संवेदनशील था उसे महल में लोग कहते हैं कि तुम्हें सबने छोड़ दिया है, अब अकेला मैं रहकर क्या करूंगा? वो भी चला जाता है। केवल वही शिष्य बचा, जो लेने गया था। तब लामा ने कहा मुझे पता था कि तुम्ही इस जिम्मेदारी के योग्य हो।

संदेश: हमने जीवन को साधना के मार्ग पर, पवित्र मार्ग पर ले जाने या चलने का निर्णय लिया है तो पूरी सिद्दत, समर्पण भाव, एकाग्रता और परमात्म प्यार में मगन होकर पूरी लगन के साथ उस मार्ग पर चलना चाहिए तभी मंजिल मिलती है। रास्ते में आने वाली बांधाएं तो हमारी परीक्षा के लिए आती हैं कि हम कितने योग्य हैं।

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