शिव आमंत्रण, आबू रोड (राजस्थान)। सदियों से हम विघ्न विनाशक गणेशजी की आराधना करते आ रहे हैं। हर वर्ष बड़े उमंग उत्साह के साथ स्थापना करते हैं और दस दिन पूजन-अर्चन के बाद विसर्जित कर देते हैं। सवाल ये है कि बचपन से जीवन की
सांझ आ गई लेकिन गणेशजी के जीवन से सीखा क्या है? क्या किसी एक दिव्यगुण को भी आत्मसात किया है? क्या जीवन को उनके समान मंगलकारी बनाने की ओर कदम बढ़ाया है? क्या खुद के विघ्नों के हम खुद विघ्न विनाशक बने हैं? या फिर जीवन की समस्याओं में आज भी रस्सी की तरह उलझा और असहाय महसूस करते हैं? क्या जीवन समावेशी दृष्टिकोण धारण किया है? क्या मन-वचन-कर्म से दूसरों के लिए मंगलकारी बने हैं या अमंगल के कारण बने हुए हैं? बचपन से सामाजिक रूप से कुछ दृश्य देखते, सुनते हमारी मनोदशा ही कुछ ऐसी हो गई है कि हम खुद को दीन-हीन, मूरख, खलकामी मान बैठे हैं। हम खुद गाते हैं कि देवा विषय-विकार मिटाओ और जब देवा विषय-विकार मिटाने के लिए परम ज्ञान बताते हैं तो यह मानकर छोड़ देते हैं कि यह हमारे वश की बात नहीं है। ज्ञान-ध्यान तो साधु-सन्यासियों का काम है। ईश्वर को पाना, उससे प्रेम करना तो महात्माओं का काम है। साथ ही पूरा जीवन चमत्कार की आस में बिता देते हैं कि आसमान से कोई फरिश्ता आएगा और एकपल में सारे दुख दूर कर देगा। यदि चमत्कार ही जीवन का सत्य है तो कर्म, फल और पुरुषार्थ का कोई औचित्य नहीं
रह जाता है? गीता ज्ञान यही कहता है कि जीवन को सिर्फ स्व के श्रेष्ठ पुरुषार्थ, महान कर्म, ज्ञान बल, योग बल और परमात्म शक्ति के संयोजन से ही विघ्न विनाशक बना बनाया जा सकता है। जीवन के विघ्न हमें खुद अपने पुरुषार्थ से दूर करना होंगे। ज्ञान के सागर परमात्मा हमें सतधर्म, सत् मार्ग का रास्ता बताते हैं, उस पर चलना या नहीं चलना हमारे ऊपर है। विघ्न और मंगलकारी अवस्था सिर्फ इस बात पर निर्भर करती है कि हमारी मनोदशा क्या है। मनोदशा को मनोहारी, मंगलकारी बनाना हमारे ही हाथ में है।
व्यक्तित्व को निखारने क्षमताओं को करना होगा विकसित-
गणेशजी की बड़ी सूंड सिखाती है कि जीवन में अपनी क्षमताओं को विकसित करते रहें, उन्हें बढ़ाते हैं। अपने व्यक्तित्व को पल-प्रतिपल निखारने और संवारते रहें। क्षमतावान व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में मान-सम्मान पाता है। बड़े कान संदेश देते हैं कि ज्ञान की बातों को ध्यान से, जिज्ञासा भरे भाव और पूरे चित्त के साथ सुनें, समझें। उनका चिंतनमनन और अध्ययन करें। ताकि विषम परिस्थितियों में उन महावाक्यों, ज्ञान के सहारे मन को शांत रख सकें, समस्याओं से आसानी से पार पा सकें। ज्ञानी व्यक्ति बोेलने से ज्यादा सुनता है। इस गुण के कारण व्यक्तित्व में चार चांद लग जाते हैं।
दूरदर्शी हो दृष्टिकोण, ताकि परिणाम न करें विचलित-
छोटी आंखें संदेश देती हैं कि जीवन में कोई भी कर्म करने के पहले दूरदर्शी दृष्टिकोण हो, वर्तमान, भविष्य और भूत को ध्यान में रखकर निर्णय लिया जाए, ताकि कर्म का परिणाम मन-बुद्धि को विचलित न करे। साथ ही छोटे से छोटे व्यक्ति में गुण देखना। गणेशजी का बड़ा पेट सिखाता है कि समाने की शक्ति का कितना महत्व है। कई बार हम बेवजह की झंझटों, परेशानियों और समस्याओं में इसलिए फंस जाते हैं क्योंकि हमारे पास समाने की शक्ति का अभाव है। आपसी व पारिवारिक रिश्तों की नींव है एक-दूसरे की कमी-कमजोरियों को समां लेना, उन्हें नजरअंदाज कर देना।
संस्कारों को बदलने के लिए जड़ पर करना होगा प्रहार-
चार हाथ में से एक हाथ में कुल्हाड़ी दिखाते हैं जो संदेश देती है कि यदि कड़े संस्कारों, पुरानी आदतों को बदलना है तो उन पर तेज प्रहार करना होगा, उसे जड़ से उखाड़कर फेंकना होगा। तभी समस्या का अंत होगा। एक हाथ हमेशा वरद मुद्रा में दिखाया गया है जो संदेश देता है कि जीवन में सदा देने का भाव रखें। हम किसी को खुशी देंगे तो बदले में खुशी मिलेगी। दुआ देंगे तो दुआ मिलेगी। देवताओं में देने का भाव होता है इसलिए वह पूजनीय होते हैं। रस्सी बंधन का प्रतीक है जो बताती है कि सबसे पवित्र बंधन है आत्मा का परमात्मा के साथ का बंधन। परमात्मा से प्रेम का बंधन। परमात्मा के प्यार में बंधने के बाद सारे बंधन अपने आप छूट जाते हैं। मोदक खुशी का प्रतीक है। जब खुशी का मौका होता है तो हम एक-दूसरे को लड्डू खिलाकर मुख मीठा कराते हैं। ऐसे ही अपनी वाणी सदा मिठास से भरपूर हो। गणेशजी को मूसक की सवारी दिखाते हैं मतलब जीवन में कितने ही आगे बढ़ जाएं, कितनी ही तरक्की कर लें, लेकिन सदा जमीन से जुड़े रहें। अपनी मूल जड़ों और संस्कारों से जुड़े रहें। अपने से छोटों को भी पूरा सम्मान दें।
…फिर जीवन में होगा मंगल ही मंगल, एक संकल्प स्व के परिवर्तन का-
क्यों न इस बार गणेश चतुर्थी पर हम एक संकल्प परिवर्तन का करते हैं। गजानन महाराज के जीवन के दिव्यगुणों में से एक दिव्य गुण को आत्मसात करते हैं। उसे जीवन में शिरोधार्य कर उसका स्वरूप बनते हैं। हम अपने विघ्न विनाशक खुद बनते हैं। महान परिवर्तन की ओर पहला कदम बढ़ाने का आज संकल्प रखते हैं। खुद को विषय- विकारी, मूरख, खलकामी की मनोदशा से निकालकर परमात्मा के दिलतख्तनशीन, कुलदीपक, आशा के दीपक, महान आत्मा, दिव्य आत्मा, श्रेष्ठ आत्मा बनने का संकल्प लेकर उनके बच्चे बनने का परम सौभाग्य प्राप्त करते हैं। फिर हमारे जीवन में मंगल ही मंगल होगा और दूसरों के लिए भी मंगलकारी बन जाएंगे। वर्तमान परिवर्तन के इस दौर में यही परमात्म आज्ञा और शिक्षा है।
बीके पुष्पेंद्र, संयुक्त संपादक, शिव आमंत्रण, शांतिवन