शिव आमंत्रण,आबू रोड। साधन-कोई सुख साधनों को यूज करते उसका ऑडिक्शन न हो। सुख सुविधाओं के बीच में रहते हुए भी तपस्या जारी रहे, तपस्या खो न जाए। साधनों का प्रयोग केवल और केवल ज्ञान, योग और सेवा के लिए होना चाहिए, इसके अतिरिक्त नहीं। इसमें चिपके रहना, इसमें लगे रहना, इसमें डूबे रहना, क्योंकि ये जो सारे सोशल मीडिया है, इससे सारे नए संबंध निर्माण होते हैं और जहां पर बिल्कुल ही आसक्ती नहीं थी पहले, वहां पर नई आसक्तियों का निर्माण होता है। कई भाई बहनें इसके माध्यम से एक दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। संसार में प्रलोभन तो बहुत है, एंटरटेनमेंट बहुत है जिसका कोई अंत नहीं, एक ख़त्म तो दूसरा चालू और उसमें विकार भरे पड़े हैं क्योंकि वर्तमान समय में कोई भी मनोरंजन बिना विकार के नहीं है, वैसा देख कर मन में वैसा ही करने की इच्छा जागृत होती है। मोबाइल में लंबे समय तक बात करना कोई आवश्यकता नहीं है। बस काम से काम। इंटरनेट तो उससे भी बड़ी माया है। उसमें बहुत सारी चीज़ें खोज की जा सकती है, ढूंढी जा सकती है, परंतु पतन का भी मार्ग हो सकता है। तलवार की तरह है, आग कि तरह है, रोटी भी बन सकती है तो घर भी जला सकती हैं। सोशल मीडिया में मैसेज भेजते रहना, कुछ ना कुछ करते रहना, ये सब में जाना ही नहीं है। नई-नई ग्रुप्स बनाना और नये-नये ग्रुप्स में जुड़ते जाना इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है। केवल वही चीज़ें आए जो ज्ञान योग से संबंधित है। बाक़ी सब से बाहर निकल जाओ जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है, नहीं तो डिजिटल दुनियां ही बहुत बड़ी गृहस्थी है क्योंकि कितने लोगों का पतन इससे ही हुआ है। नये नये संबंध, दोस्ती, प्यार, मोहब्बत ये सब इससे होता है। कहां श्रेष्ठ ब्रह्माकुमारी जीवन और कहां गिर जाते हैं और कहीं किसी व्यक्ति में फंस जाते हैं। अगर हमें लगता है कि हम डिजिटल गृहस्थी में फंस गए हैं तो निकल कर बाहर आ जाना है।
भोजन- ब्रह्माकुमारी जीवन अर्थात सारा जीवन किचन में व्यतीत करना नहीं, बहुत सारे काम और भी है। इतने स्वार्थ के अधीन नहीं हो जाना कि दिन रात यही चिंतन चल रहा है कि अभी ये बनाया था, दोपहर में अब ये बनाना है, फिर शाम को क्या बनाएं। ये टोली वो टोली, सेवाओं के लिए आवश्यक है परंतु ख़ुद उससे डिटैच रहें। अन्नपूर्णा मां हूं। मां अर्थात दूसरों को खिलाने वाली। मां सब को खिलाती है, ख़ुद बहुत कम या ना के बराबर खाती है, आखिर में। नहीं मिला तो भी ठीक उससे भी कोई फर्क़ नहीं पड़ता है। तो यहां पर भी ऐसा ही है, खिलाना है खाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हमारा अपना जीवन तपस्वी हो। इतना उसके अधीन नहीं हो जाना है कि दिन रात उसी का चिंतन हो, वही सोचते रहना क्या खाएं। ये क्या बना वो क्या बना, इधर क्या बना उधर क्या बना। होश में रखना स्वयं को, नहीं तो ये भोजन भी गृहस्थी बन जाती है। भोजन बनाना भी है तो मौन में होकर बनाना है, योग युक्त होकर बनाना है। सकाश देते देते बनाना है। एक-एक चीज़ को सकाश दृष्टि देते हुए, नहीं तो ये भाव रहता है कि ये मैंने बनाया है और मैंने बनाया है तो लोग तारीफ़ करें। लोग पूछे कि किसने बनाया है इतना स्वादिष्ट। मैं बहुत स्वादिष्ट बनाती हूं, यह भी एक अहंकार है। मेरा बनाया हुआ खाके तो देखो एक बार, जिसने तारीफ़ किया बस वही बंधन का कारण बन जाएगा। खासकर पुरुष का हृदय मार्ग तो उसके पेट से खुलता है। भोजन से किसी को भी प्रसन्न किया जा सकता है, इसलिए जो कट्टर दुश्मन, ज्ञान का विरोध करने वाले उनको टोली से और ब्रह्मा भोजन से जीता जाए।