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ज्ञान रुपी दिपक ……….. - Shiv Amantran | Brahma Kumaris
ज्ञान रुपी दिपक ………..

ज्ञान रुपी दिपक ………..

बोध कथा

“परम मित्रों”, एक बार एक आदमी बड़े ही धार्मिक भाव से रोज संध्या को दीपक जला कर अपने घर के आगे रखने लगा । लेकिन पड़ोस के लोग उसके दिए को उठा कर ले जाते या कुछ लोग तो उसे बुझा भी देते थे । उसके अपने ही उसे कहने लगे कि क्या तू ज्यादा प्रकाश करना जानता है ? हमने भी अंधेरे बहुत देखे हैं, हमें तो किसी ने प्रकाश नहीं दिखाया आज तक । तुम अपने आपको ज्यादा साधन संपन्न समझते हो क्या
लेकिन दीपक जलाने वाला अपने उसी नियम से रोजाना दीपक जलाता रहा । ना तो वह प्रकाश करने की कोई घोषणा करता था और ना ही अपने दीपक का कोई प्रचार करता था । क्योंकि उसे यह मंजूर नहीं था कि उसके ही घर के सामने कोई भी अंधेरे में ठोकर खाए । इसलिए वह निरंतर ही प्रकाश का दीया प्रकाशित करता रहा । आखिर धीरे-धीरे लोगों को बात समझ में आनी शुरु हो गई । अंधेरे रास्ते पर राहगीरों को दूर से ही प्रकाश में दिखाई पड़ने लगा ।
वही प्रकाश राहगीरों को कहने लगा कि आ जाओ, यह रास्ता सुगम है । यहां प्रकाश है, यहां अंधेरा नहीं है ; रास्ते की ठोकरें साफ नजर आती हैं । जब राहगीर प्रकाश के पास आते, तो वह कहता कि देख कर चलना वहां सामने पत्थर है । इधर पीछे की गली कहीं भी नहीं जाती है, वहां पीछे गली समाप्त हो जाती है । यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है । धीरे-धीरे प्रकाश में साफ ही नजर आने लगा कि मार्ग किधर है और किधर नहीं है ।
कुछ समय पाकर उस प्रकाश के प्रति गांव के लोगों में आदर भरना शुरु हो गया । फिर सभी लोगों ने अपने-अपने घरों के आगे दीपक जलाने शुरू कर दिए । फिर उस नगर कमेटी के प्रबंधकों ने भी नगर में प्रकाश की व्यवस्था को सुचारु करने का काम शुरू कर दिया था । फिर सारे नगर में ही प्रकाश फैल गया और धीरे-धीरे पूरी दुनिया ही प्रकाशित होने लगी । श्री सतगुरु देव फरमाते हैं कि गुरमुखों को भी अपने जीवन की दहलीज में सत्संग, सेवा, सुमिरन और ध्यान रुपी दीपक प्रकाशित करने चाहिएं ; ताकि सभी जीव आत्माओं को उनसे प्रकाश मिल सके । परम मित्रों के सहयोग से तुम भी सत्संग की जोत से जोत जगाते चलो-

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