“परम मित्रों”, एक बार एक आदमी बड़े ही धार्मिक भाव से रोज संध्या को दीपक जला कर अपने घर के आगे रखने लगा । लेकिन पड़ोस के लोग उसके दिए को उठा कर ले जाते या कुछ लोग तो उसे बुझा भी देते थे । उसके अपने ही उसे कहने लगे कि क्या तू ज्यादा प्रकाश करना जानता है ? हमने भी अंधेरे बहुत देखे हैं, हमें तो किसी ने प्रकाश नहीं दिखाया आज तक । तुम अपने आपको ज्यादा साधन संपन्न समझते हो क्या
लेकिन दीपक जलाने वाला अपने उसी नियम से रोजाना दीपक जलाता रहा । ना तो वह प्रकाश करने की कोई घोषणा करता था और ना ही अपने दीपक का कोई प्रचार करता था । क्योंकि उसे यह मंजूर नहीं था कि उसके ही घर के सामने कोई भी अंधेरे में ठोकर खाए । इसलिए वह निरंतर ही प्रकाश का दीया प्रकाशित करता रहा । आखिर धीरे-धीरे लोगों को बात समझ में आनी शुरु हो गई । अंधेरे रास्ते पर राहगीरों को दूर से ही प्रकाश में दिखाई पड़ने लगा ।
वही प्रकाश राहगीरों को कहने लगा कि आ जाओ, यह रास्ता सुगम है । यहां प्रकाश है, यहां अंधेरा नहीं है ; रास्ते की ठोकरें साफ नजर आती हैं । जब राहगीर प्रकाश के पास आते, तो वह कहता कि देख कर चलना वहां सामने पत्थर है । इधर पीछे की गली कहीं भी नहीं जाती है, वहां पीछे गली समाप्त हो जाती है । यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है । धीरे-धीरे प्रकाश में साफ ही नजर आने लगा कि मार्ग किधर है और किधर नहीं है ।
कुछ समय पाकर उस प्रकाश के प्रति गांव के लोगों में आदर भरना शुरु हो गया । फिर सभी लोगों ने अपने-अपने घरों के आगे दीपक जलाने शुरू कर दिए । फिर उस नगर कमेटी के प्रबंधकों ने भी नगर में प्रकाश की व्यवस्था को सुचारु करने का काम शुरू कर दिया था । फिर सारे नगर में ही प्रकाश फैल गया और धीरे-धीरे पूरी दुनिया ही प्रकाशित होने लगी । श्री सतगुरु देव फरमाते हैं कि गुरमुखों को भी अपने जीवन की दहलीज में सत्संग, सेवा, सुमिरन और ध्यान रुपी दीपक प्रकाशित करने चाहिएं ; ताकि सभी जीव आत्माओं को उनसे प्रकाश मिल सके । परम मित्रों के सहयोग से तुम भी सत्संग की जोत से जोत जगाते चलो-

ज्ञान रुपी दिपक ………..
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