गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की सशिर बंगाली में लिखी हुई अंतिम कविता है। एक पुरुष है और एक स्त्री है। दोनों का आपस में बहुत प्यार है। दोनों ही आपस में शादी करना चाहते हैं। स्त्री बहुत सुंदर-अमीर है। पुरुष गरीब है। युवक से स्त्री कहती है मैं तुमसे शादी करूंगी। वह कहता है हां हम दोनों शादी करेंगे और वह कहती है कि शादी के बाद हम दोनों अलग-अलग रहेंगे। युवक कहता है अलग-अलग ये कैसी शादी है। तो फिर शादी ही क्यों कर रहे हो? वह कहती मेरी एक ही शर्त है शादी तो मैं तुमसे ही करुंगी। परंतु शादी के बाद तुम्हारे लिए मैं एक महल बनाऊंगी। महल उधर होगा और मैं इधर रहूंगी। बीच में झील होगी। कभी मिल लिए तो मिल लिए, तुम उधर से आ रहे हो कभी मैं इधर से आ रही हंू। तुम इधर से नौका विहार, मैं उधर से नौका विहार, हाय हेलो। वो कहता है ऐसी कैसी शादी है ये? वो कहती है शादी करनी है तो ऐसी ही करूंगी। हां तुम चाहते हो किसी और से शादी करना तो कर लो। परंतु तुम्हारी याद में संपूर्ण जीवन भर अविवाहित रहूंगी और तुम्हारी याद में रहूंगी। युवक मुश्किल में पड़ जाता है। वो कहता है ये कैसी शादी है? लड़की कहती है हम दो व्यक्ति हमारा जो आपसी प्यार है। वहां अगर हम शादी करके एक जगह नजदीक आ गए तो जो प्रेम है शायद उस प्रेम में वो फ्रेशनैश नहीं रह सकता है। उस प्रेम में घृणा उत्पन्न हो सकती है। झगड़ा हो सकता है इसलिए कि यह प्रेम ऐसा ही कायम रहे। इसलिए तुम उधर हम इधर। हम भी जहां हंै भले साथ में हैं परंतु वह उधर और हम इधर। बीच में नष्टोमोहा रहने के लिए परमात्मा रूपी झील। चाहे कोई कितना भी अच्छा हो परंतु इमोशनल डिटैचमेंट, मेंटल डिटैचमेंट, बौद्धिक डिटैचमेंट होगी तो वह संबंध लंबा समय तक चलेगा। अगर अटैचमेंट आ गई तो पहले तो भगवान वहां से चला जाएगा क्योंकि मोह विकार की श्रेणी है। प्रेम दिव्यगुण है। अपने संबंधों को अनासक्त प्रेमपूर्ण करते चलना है। प्रेम क्या है और मोह क्या है इसके अंतर को जानना है। सेवा की, सबसे मिले और काम पूरा हुआ बाय-बाय। कोई लेना-देना नहीं है। चाहे घर में रहते या सेवाकेंद्र या ऑफिस, चाहे मधुबन में आते हैं, हम सभी के साथ हैं परंतु किसी के भी साथ नहीं हैं। बगल वाला साथ है परंतु हम अनासक्त हैं। वो इधर हम उधर बीच में झील, उस झील का नाम है बाबा। वो बीच में बाबा रूपी झील होनी चाहिए। तुम उधर हम उधर। तुम आए या हम आए, तुम मुझे आमंत्रित नहीं करोगे, मैं तुझे आमंत्रित नहीं करूंगी। नौका विहार कर रहे मिल लिए बीच में हाय हेलो ओम शांति और टाटा। हम अपने रास्ते तुम अपने रास्ते। नहीं तो यह भी एक चक्रव्यूह है जैसे पिछले बोधकथा अनुसार वह शिष्य जैसे ही उस कन्या को देखा, सोचा थोड़े समय इसके पास रह जाऊं और चक्रव्यूह में फंस गया।
संदेश: हमने जीवन को साधना के मार्ग पर, पवित्र मार्ग पर ले जाने या चलने का निर्णय लिया है तो पूरी सिद्दत, समर्पण भाव, एकाग्रता और परमात्म प्यार में मगन होकर पूरी लगन के साथ उस मार्ग पर चलना चाहिए तभी मंजिल मिलती है। रास्ते में आने वाली बाधाएं तो हमारी परीक्षा के लिए आती हैं कि हम कितने योग्य हैं।